वैदिक विचार #7

प्राग्नये॒ वाच॑मीरय वृष॒भाय॑ क्षिती॒नाम् । स नः॑ पर्व॒द् अति॒ द्विषः॑ ।।


ऋ० १० ११८७ ११; अथर्व० ६ । ३४ ।१ ऋषिः वत्स आग्नेयः । देवता अग्निः । छन्दः निचृद् गायत्री | |

हे मनुष्य ! क्या तू अब चाहता है कि तू द्वेष से पार हो जाय ? क्या तू अपने मनुष्य भाइयों से द्वेष कर-करके, और बदले में उनके द्वेष को पा- पाकर अब तंग आ चुका है ? तूने अपने सुख में बाधक समझ न जाने कितनों से द्वेष किया है, पर जितना ही तूने उनसे द्वेष किया है— वैर का बदला वैर से दिया है क्या उतना ही वह द्वेष बढ़ता नहीं गया है ? ओह ! इस बदले की, प्रतिद्वेष की प्रक्रिया से द्वेष इतना बढ़ता गया है कि तू आज अपने ही बनाए एक द्वेष-सागर में घिर गया है । यदि तू अब पूरा व्याकुल हो चुका है और चाहता है कि इस द्वेष-चक्र से पार हो जाय तो तू उठ और जगत् में व्यापक अपने उस अग्निदेव तक अपनी वाणी को पहुँचा, जो कि सब मनुष्यों की कामनाओं को पूरा करनेवाला है । अरे, वह तो ‘वृषभ’ है, हम पर करुणा करके अभीष्टों को बरसा रहा है। केवल उस तक अपनी आवाज़ पहुँचाने की देर है कि वह तेरी कामना पूरी कर देगा । यदि यह तेरी इच्छा हार्दिक है तो निश्चय से तेरी प्रार्थना, तेरी पुकार, वेग से, प्रकृष्टता से वहाँ पहुँचेगी। यदि वाणी की प्रकृष्टता से प्रेरित करने का हममें सामर्थ्य हो तो प्रार्थना की वाणी उस अग्निदेव को पहुँचकर उससे क्या नहीं करा सकती, किस कामना की पूर्ति नहीं करा सकती ! पर हमारी कामना को पूरी करने की सामर्थ्य उसी में है— केवल उसी में है । वही हमें द्वेष-सागर से पार करेगा। इसलिए तू अपने दुःख में बाधक समझकर अब किसी से द्वेष न कर, किन्तु सुख के बरसानेवाले उस प्रभु से प्रार्थना कर और फिर देख कि द्वेष कहाँ है । प्रार्थना द्वारा उस प्रभु के सम्मुख पहुँचते ही सब द्वेष समाप्त हो जाएगा।


शब्दार्थ – क्षितीनां मनुष्यों के वृषभाय अभीष्टों को बरसानेवाले अग्नये अग्नि प्रभु के लिए वाचम् अपनी वाणी को प्र ईरय प्रकृष्टता से प्रेरित कर । स वह नः हमें द्विषः द्वेषों से अति पर्षत् पार लगायेगा ।