वैदिक विचार #6
मा प्रगा॑म प॒थो व॒यं मा य॒ज्ञादि॑न्द्र सा॒मिनः॑ ।
मान्तः स्थु॒ना॒ अरा॑तयः । ।
-ऋ० १०।५७।१; अथर्व० १३।१।५९
ऋषिः बन्धुः – सुबन्धुः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः गायत्री ।
हे इन्द्र, परमैश्वर्यवान् ! हम तुमसे ऐश्वर्य नहीं माँगते हैं। हमारी तुमसे याचना तो यह है कि हम सदा सन्मार्ग पर चलते जाएँ, इसको कभी न छोड़ें। सन्मार्ग पर चलते हुए हमें जो कुछ ऐश्वर्य मिलेगा वही सच्चा ऐश्वर्य होगा। जिस किसी तरह मिला हुआ ‘ऐश्वर्य’ ऐश्वर्य नहीं होता — उसमें ईश्वरत्व नहीं होता – सामर्थ्य नहीं होता । सन्मार्ग से जो कुछ ऐश्वर्य मुझें मिलेगा, उस ऐश्वर्य को तुझसे पाकर हे इन्द्र ! मेरी प्रार्थना है कि मैं यज्ञ से कभी विचलित न होऊँ। यज्ञ करता हुआ — उपकार करता हुआ ही मैं उस तेरे दिये ऐश्वर्य को भोगूँ । जो कुछ तुम्हारे द्वारा (तुम्हारे देवों द्वारा) मुझे मिला है, उसे तुम्हें (देवों को) बिना दिये भोगना चोरी ‘ है । ऐसा पाप स्वार्थवश हम कभी न करें। यज्ञ को, आत्मत्याग को, परार्थ में आत्म-विसर्जन को कभी न भूलें। यज्ञ के बिना भोग भोगना विषपान करना है । अत: हमारी दूसरी प्रार्थना है कि हम यज्ञ को कभी न छोड़ें।
२. हमारी तुमसे यह प्रार्थना नहीं है कि तुम हमारे शत्रुओं का नाश कर दो। हमारी याचना तो यह है कि हमारे अपने अन्दर ‘अराति” न ठहरें। हमारे अन्दर अराति न हों तो बाहर हमारा अराति कोई कैसे हो सकता है ! अराति अर्थात् अदानभाव हमारे अन्दर क्षण-भर को न ठहरे, क्षण-भर के लिए न आए। अदानभाव होते हुए यज्ञ असम्भव है। अत: हमारा एक मात्र शत्रु अदानभाव ही है । यह अन्दर का शत्रु ही हमारा शत्रु है। हे प्रभो ! इससे हमारी रक्षा करो। फिर बाहर के किसी शत्रु की हमें परवाह नहीं ।
शब्दार्थ – इन्द्र हे परमेश्वर ! वयं हम पथो मा प्रगाम सन्मार्ग को छोड़ कर मत चलें सोमिनः ऐश्वर्ययुक्त होते हुए वयं यज्ञात् [मा प्रगाम] हम यज्ञ को छोड़कर मत चलें । अरातयः अदानभाव नः अन्तः मा स्थुः हमारे अन्दर न ठहरें ।