वैदिक विचार #4
यद् अ॒ग दा॒शुषे॒ त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत् तत् स॒त्यम॑ङ्गिरः । ।
ऋषिः मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः । देवता अग्निः । छन्दः निचृद् गायत्री।
ऋ० १।१।६
हे प्रकाशमय देव ! यह सच है कि स्वार्थत्यागी का कल्याण ही होता है । पर दुनिया में ऐसा दिखाई नहीं देता। दुनिया में तो दीखता है कि स्वार्थमग्न लोग ही आनन्द-मौज उड़ा रहे हैं और स्वार्थत्यागी दुःख भोग रहे हैं। स्वार्थी विजय पर विजय पा रहे हैं, दूसरों पर ज़ुल्म कर रहे हैं और स्वार्थत्यागी पुरुष सताए जा रहे हैं । परन्तु हे मेरे प्यारे देव ! हे मेरे जीवनसार ! आज मैं तेरी परम कृपा से सूर्य की तरह यह साफ्न देख रहा हूँ कि आत्म-बलिदान करनेवाले का तो सदा कल्याण ही होता है। इसमें कुछ संशय नहीं रहा; यह अटल है, बिल्कुल स्पष्ट है । दुनिया की ये प्रतिदिन की उलटी दिखाई देनेवाली घटनाएँ भी आज मेरी खुली आँखों के सामने से इस प्रकाशमान सत्य को छिपा नहीं सकती हैं कि आत्मसमर्पण करनेवाले के लिए कल्याण-ही-कल्याण है । मैं देखता हूँ कि दुनिया में चाहे कभी सूर्य टल जाय, ऋतुएँ बदल जायँ, पृथिवी उलटी घूमने लग जाय और सब असंभव संभव हो जाय, पर यह तेरा सत्य अटल है कि आत्म- बलिदान करनेवाले का अकल्याण कभी नहीं हो सकता — “नहि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति ” [ ” हे प्यारे ! कल्याण करनेवाला कभी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता ” ] कृष्ण भगवान् के गाए हुए ये सान्त्वनामय शब्द परम सच्चे हैं।
हे जीवन के जीवन ! जब मनुष्य स्वार्थ को त्यागता हैं, आत्म- बलिदान करता है तो उस त्याग व बलिदान द्वारा हे कल्याणस्वरूप ! वह केवल तेरे और अपने बीच की रुकावट का ही त्याग करता है, निवारण करता है और तेरे कल्याणस्वरूप को पाता है। भला, आत्म- बलिदान में अकल्याण की गुंजाइश ही कहाँ है ? सचमुच, स्वार्थशून्य पवित्र पुरुषों पर आए हुए कष्ट, दुःख, आपत् सब क्षणिक होते हैं । उनके सम्बन्ध में जो अक्षणिक है, सत्य है, अटल है, वह तो उनका कल्याण है ।
शब्दार्थ – अंग हे प्यारे ! अंगिरः मेरे जीवनसार अग्ने प्रकाशक देव ! यत् त्वं जो तू दाशुषे आत्मबलिदान करनेवाले का भद्रं कल्याण करिष्यसि करता है तत् वह तव तेरा सत्यं इत् सच्चा, न टलनेवाला नियम है ।