वैदिक विचार #3

अग्ने॒ यं य॒ज्ञम॑ध्व॒रं वि॒श्वतः॑ परि॒भूरस 34/441 स इद् दे॒वेषु॑ गच्छति । । – ऋ०

ऋ० १।१।४
ऋषिः मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः । देवता अग्निः । छन्दः गायत्री ।

हम कई शुभ अभिलाषाओं से कुछ यज्ञों को प्रारम्भ करते हैं और चाहते हैं कि यज्ञ सफल हो जायँ । परन्तु हे देवों के देव अग्निदेव ! कोई भी यज्ञ तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि उस यज्ञ में तुम पूरी तरह न व्याप रहे हो, चूँकि जगत् में तुम्हारे अटल नियमों व तुम्हारी दिव्य शक्तियों के अर्थात् देवों के द्वारा ही सब कुछ सम्पन्न होता है । तुम्हारे बिना हमारा कोई यज्ञ कैसे सफल हो सकता है ? और जिस यज्ञ में तुम व्याप्त हो वह यज्ञ अध्वर (ध्वरा अर्थात् कुटिलता और हिंसा से रहित ) तो ज़रूर होना चाहिये। पर जब हम यज्ञ प्रारम्भ करते हैं, कोई शुभ कर्म करते हैं, किसी संघ-संगठन में लगते हैं, परोपकार का कार्य करने लगते हैं तो मोहवश तुम्हें भूल जाते हैं । उसकी जल्दी सफलता के लिए हिंसा और कुटिलता से भी काम लेने को उतारू हो जाते हैं। तभी तुम्हारा हाथ हमारे ऊपर से उठ जाता है। ऐसा यज्ञ तुम्हारे देवों को स्वीकृत नहीं होता, उन्हें नहीं पहुँचता — सफल नहीं होता । हे प्रभो ! अब जब कभी हम निर्बलता के वश अपने यज्ञों में कुटिलता व हिंसा का प्रवेश करने लगें और तुझे भूल जायँ तो हे प्रकाशक देव ! हमारे अन्तरात्मा में एक बार इस वैदिक सत्य को जगा देना; हमारा अन्तरात्मा बोल उठे कि “हे अग्ने ! जिस कुटिलता व हिंसा-रहित यज्ञ को तुम सब तरफ से घेर लेते हो, व्याप लेते हो, केवल वही यज्ञ देवों में पहुँचता है अर्थात् दिव्य फल लाता है— सफल होता है ।” सचमुच तुम्हें भुलाकर, तुम्हें हटाकर यदि किसी संगठन-शक्ति द्वारा कुटिलता व हिंसा के ज़ोर पर कुछ करना चाहेंगे तो चाहे कितना घोर उद्योग करें पर हमें कभी सफलता न होगी ।
शब्दार्थ – अग्ने हे परमात्मन् ! त्वं तुम यं जिस अध्वरं यज्ञं कुटिलता तथा हिंसा से रहित यज्ञ को विश्वतः परि भूः असि सब तरफ से व्याप लेते हो स इत् केवल वही यज्ञ देवेषु गच्छति दिव्य फल लाता है।