विभाग के बारे में
उपह्वरे गिरीणां सङ्गमे च नदीनाम्। धिया विप्रो ऽ अजायत।। (यजुर्वेद 26.15)
अर्थात् पर्वतों एवं नदियों के पवित्र वातावरण में ज्ञानी विप्रजनों का जन्म होता है। वेदमन्त्र की इस मूल-भावना को हृदयङ्गम कर अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी ने महर्षि दयानन्द के अमर उद्घोष वेदों की ओर लौटो को अपने जीवन का मुख्य ध्येय बनाया तथा वैदिक ज्ञान-विज्ञान तथा संस्कृति एवं सभ्यता का प्रचार-प्रसार कर समाज से अज्ञान, अन्याय, दुराचार, असमानता आदि सामाजिक विद्रूपताओं और विषमताओं के शमन के लिए तथा सामाजिक मूल्यों एवं राष्ट्रिय भावों की पवित्रता का बीजारोपण करने के उद्देश्य से शीतलसलिला शान्तिदायिनी गंगा के सुरमणीय पावन तट पर हिमालय की उपत्यका में 4 मार्च, 1902 में गुरुकुल काँगड़ी समविश्‍वविद्यालय की स्थापना की थी। गुरुकुल काँगड़ी समविश्‍वविद्यालय के इस अङ्कुरण के मूल में आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः। तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः।। (अथर्ववेद 11.5.3) यह ऋषियों की अमरवाणी थी, जो अतुलनीय है। इसका तात्पर्य यह है कि कैसे भी उच्च राजा, महाराजा अथवा निम्न, निर्धन कुल का बालक अध्ययन के लिए आचार्यकुल में प्रवेश लेवे, तो आचार्य के गुरुकुलरूपी गर्भ में वह उसी प्रकार धारण कर लालन, पालन और परिपोषण करने योग्य है जैसे माँ किया करती है, निरन्तर नौ मास तक, बदले में बिना किसी मूल्य को लिए और सम्पूर्ण विकास होने पर जैसे शिशु बाह्य जगत् का दर्शन करता है, ऐसे ही निरन्तर शिक्षापूर्ण होने तक आचार्यकुल में विद्यार्थी समानरूप से किसी प्रकार का शुल्क न देते हुए गुरु की स्नेहिल छाँव के नीचे विद्यार्जन से हर प्रकार के तमस् को दूर करता हुआ आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक, भौतिक विभिन्न प्रकार की उन्नतियाँ कर सम्पूर्णता को प्राप्त हो समाज में पदार्पण करे। ऐसे में देवजन उसका स्वागत करते हैं। वेद के इन निर्देशों की परिपालना करते हुए आचार्य मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने उत्कृष्ट मानव और समर्पित राष्ट्रभक्तों के निर्माण के लिए गुरुकुल की स्थापना की और भारतीय पुरातन समस्त ज्ञान-विज्ञान संस्कृत भाषा में ही निहित है, उसके जाने बिना भारत की ज्ञानपरम्परा को कथमपि नहीं जाना जा सकता, अतः संस्कृत विभाग की स्थापना भी 4 मार्च, 1902 में ही सम्पन्न हुई।अपने आदि काल से ही अनेक मनीषियों ने अपनी ज्ञानवारिधारा से इस विभाग को सींचा और 1962 में मानद विश्वविद्यालय का स्तर प्राप्त होने के बाद भी साहित्य एवं वेद के मर्मज्ञ पण्डित आचार्य रामनाथ वेदालङ्कार (राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित, वेदभाष्यकार तथा अनेक ग्रन्थों के प्रतििष्ठत लेखक)के अध्यक्षत्व में यह विभाग उत्तरोत्तर वृद्धि करता रहा। समय-समय पर अनेक आचार्यों ने संस्कृत में निहित विविध ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन अध्यापन तथा शोधकार्य में महत्त्वपूर्ण कार्य करते हुये विभाग को उन्नति प्रदान की है तथा सम्प्रति कर रहे हैं।
उद्देश्य
  • संस्कृत में निहित शास्त्रों के ज्ञान को सर्वसुलभ बनाना संस्कृत विभाग का मुख्य उद्देश्य रहा है। शोधकार्य के माध्यम से संस्कृत में निहित मानवीय मूल्यों के द्वारा सौहार्दपूर्ण समाज के निर्माण में सहयोग करना, संस्कृतभाषा को जनभाषा के रूप में विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से प्रतिष्ठापित करना।
  • संस्कृत के दुर्लभ साहित्य एवं पाण्डुलिपियों को प्रकाशित कर सुरक्षित एवं प्रसारित करना।
  • संस्कृत में निहित विविध ज्ञान-विज्ञान का अन्तर्विषयक शोधकार्य ।
  • संस्कृत शिक्षण में कम्प्यूटर का प्रयोग कर संस्कृत पठन-पाठन को सरल, सहज एवं व्यापक बनाना।
  • संस्कृत के ग्रन्थों को विभागीय वेबसाइट पर उपलब्ध कराना।
  • आधुनिक राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरणसम्बन्धी समस्याओं का समाधान संस्कृत में खोजकर उनसे समाज को मुक्त कराना।
  • प्राचीन शिक्षण पद्धति का प्रसार कर बिना किसी वर्ग, जाति के भेदभाव से सभी को समान रूप से शिक्षा प्राप्त कराना।